।। श्री रामः शरणं मम।।
परम पूज्य गुरुदेव श्री रामकिंकर जी महाराज द्वारा गुरुपूर्णिमा के अवसर पर अपने शिष्यों को दिया गया अंतिम सारगर्भित उपदेश ‘‘रामायणम् आश्रम’’, सत्संग भवन , श्रीधाम अयोध्या, गुरु पूर्णिमा 24 जुलाई 2002, दोपहर 12.00 बजे
यह उपदेश महाराज श्री के देहत्याग से 16 दिन पूर्व का है, जब वे निम्नलिखित उपदेश को स्वयं अपने जीवन में (चरितार्थ) कर रहे थे। परमपूज्य महाराजश्री ने लीला संवरण का संकल्प ले लिया था, पर किसी को भी ज्ञात नहीं होने दिया। उन्होंने सारी दवाईयाँ छोड़ दी थीं और निरन्तर मालाझोली लिये नाम जप, भगवान का श्रीविग्रह हाथ में लिये एक ओर करवट करके सदैव उनका रूप-दर्शन और भगवान श्री रामभद्र और श्री किशोरी जी के विवाह-प्रसंग का पाठ सुनते हुए वे नित्य लीला में लीन हो गये थे, उनका बार-बार यह कहना कि मेरे और भगवान के बीच में जो वार्तालाप चल रहा है उसमें कृपा की व्याख्या करने का अधिकार केवल मुझे है। उन्होंने हरि इच्छा को ही हरि कृपा की कठिन कसौटी से गुजार दिया, और अन्त में भगवान के धाम विग्रह में उन्होंने अपने को विलीन कर दिया। इस उपदेश में एक भी वाक्य ऐसा नहीं है जिससे यह सिद्ध न हो कि वे अपने शिष्यों से सब कुछ छिपाकर भी सब कुछ बता रहे हैं। हनुमान जी के प्रसंग में मूर्ति, चबूतरा, मन्दिर, चित्र और साक्षात् सगुण और निर्गुण, तत्त्व और भावना वे सब भक्तों को भविष्य की ओर आगाह कर रहे थे। प्रस्तुत हैं, सगुण शब्दों के पीछे अगुण उद्देश्यों का सार।
गुरु उवाच
श्री राम जय राम जय जय राम, श्री राम जय राम जय जय राम, श्री राम जय राम जय जय राम !
बोलिए सियावर रामचन्द्र की जय
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोेऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।
वैसे इस बीच अन्यत्र तो मैं बहुत सक्रिय नहीं रहता था, पर जब इस बीच मैंने सुना कि इस बार गुरु पूर्णिमा पर शिष्यों द्वारा पूजन का यह क्रम रखा गया है, इस समय चित्र में पूजन होगा, थोड़ी देर के लिये मैं भी शुरू में आपके सामने बोलूँगा, बहुधा गुरु के जो शिष्य होते हैं, स्वभाव में उनके कुछ भिन्नता तो होती ही है, सब अपने-अपने ढंग से ही अपनी-अपनी भावनाओं को प्रकट करना चाहते हैं। इस समय मुझे एक संस्मरण ध्यान में आ गया।
हनुमानजी के ऐसे ही दो अनन्य भक्त थे, पर दोनों भक्तों में भेद था। किसी स्थान पर श्री हनुमानजी महाराज चबूतरे पर विराजमान थे। एक भक्त का आग्रह था कि यहाँ तो मन्दिर बन जाना चाहिए, दोनों में विवाद ! निर्णय कौन करे ? अंत में निर्णय हुआ कि हनुमानजी से ही क्यों न पूछ लिया जाये, वे क्या चाहते हैं ? हनुमानजी ने कहा इसका उपाय तो बहुत सरल है – क्या ? उन्होंने कहा कि मंदिर तो बनवाए रखिये और यहाँं चबूतरे पर लोग दर्शन करते ही हैैं। जब मुझे धूप लगेगी तो मैं मंदिर में चला जाऊँगा और पानी बरसने का तथा वर्षा का आनन्द लेना होगा तो बाहर चला आऊंँगा। दोनों भक्त बड़े ही प्रसन्न हो गये।
इसका अर्थ यह है कि वस्तुतः अपने गुरुदेव के रूप में जिन्हें हम स्वीकार करते हैं और जब उन्हें किसी रूप में देखना चाहते हैं, हम उनके प्रति श्रद्धा और भावना प्रकट करना चाहते हैं, तो येे अपने ही भाव की अभिव्यक्ति है कि हम सब रूप में उन्हें प्रसन्न करें और वे स्वीकार करें। इसका अर्थ यह हुआ कि दो रूप में चाहने वाले हैं- चित्र के रूप में भी और इस प्रत्यक्ष शारीरिक रूप में भी, और इसमें भी मुझे एक और हँसी की बात याद आ गयी।
परमहंस रामकृष्णदेव का ऐसा चित्र किसी शिष्य ने ले लिया था, कुछ विरोध भाव से नहीं, सहज भाव से जिसमें वे अत्यन्त दुर्बल, जीर्ण दिखायी दे रहे थे। कई भक्तों को यह उचित प्रतीत नहीं हुआ, उन्हें अत्यन्त कष्ट हुआ कि ये चित्र उपयुक्त नहीं है, तब शिष्यों नेे निर्णय किया कि सारे देश में से इस चित्र को एकत्रित करके जल में प्रवाहित कर दिया जाय। स्वाभाविक है कि उन्हें इस रूप में अपने आराध्य की कल्पना असह्य थी, और तब उन्होंने वैसा ही किया, और जिसके मन में वह रूप असह्य नहीं था तो उन्होंने उसे उस रूप में नहीं देखा।
तो आप लोग आये, अपनी-अपनी भावना के अनुकूल दोनों ही रूपों में पूजन किया। चित्र के रूप में और स्वयं दिखायी देने वाले विग्रह के रूप में भी, बाहर आकर प्रत्यक्ष रूप में, तो चलिए आप लोगों को संतोष हो गया, सबको खूब प्रसन्नता मिल गई।
आप लोग इस अर्थ को भलीभाँति समझ लें कि जिसको ”तत्त्व“ कहते हैं, जैसे सोने का आभूषण होता है और वह सोने का आभूषण अनेक रूप में बाजार में मिलता है और कोई किसी रूप में पहनता है और कोई किसी रूप में धारण करता है, पर जो बुद्धिमान है वह जानता है, समझता है कि जो तत्त्व है, वह ”स्वर्ण“ है।
तत्त्वतः गुरु के लिये कहा गया कि गुरु का जो स्वरूप है – ‘वन्दे बोधमयं नित्यं’– बोधमय, तत्त्वमय और नित्य है। तत्त्वमय शब्द बार-बार प्रयोग किया, गुरु तत्त्व ज्ञानगम्य है, तत्त्व सर्वत्र एक ही है- अनेक रूप में होते हुए भी वे एक ही हैं।
विभिन्न रुचि वाले व्यक्ति के लिये विभिन्न रूप मेें उनकी पूजा, आराधना, विचार या व्यक्ति को धारण किया जाता है, दोनों का महत्त्व है। बुध के लिये विचार और तत्त्व की आवष्यकता है और भावना के लिए चित्र की आवष्यकता हैै।
श्रीरामचरितमानस में तो भावना और तत्त्व दोनों का सम्मिश्रण है। सम्मिश्रण का रूप यही है कि जैसे उन्होंने यह लिखा कि जब श्रीराम को जगत् जननी श्री सीताजी ने देखा तो देखने के पश्चात् आँखें बंद कर लिया। आश्चर्य हुआ, उनके मन में क्या भाव आया ? प्रभु प्रत्यक्ष सामने खड़े हैं ! उन्हें न देखकर वे मन ही मन प्रभु के दिव्य स्वरूप का, अन्तरंग रूप का आनन्द ले रही थीं –
लोचन मग रामहिं उर आनी।
दीन्हेउ पलक कपाट सयानी।।
इसका अर्थ क्या हुआ ? क्या प्रभु बाहर नहीं थे, भीतर ही हैं। प्रभु तो दोनों स्थानों पर हैं, पर उन दोनों स्थानों पर होते हुए भी आप जब उन्हें चित्र के रूप में देखते हैं। जो आपके भीतर हैं, वही बाहर हैं। बाहर वाले को ध्यान के रूप में भीतर देखते हैं, तो बाहर वाला भी भीतर में स्थित है, ऐसी भावना होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि तत्त्व एक है और उसके बाद भावना का पक्ष एक को ही हम दो रूपों में देखते हैं। जगत् जननी श्री सीताजी से प्रियतम प्रभु अभिन्न हैं, वे उन्हें भीतर हृदय में बुलाती हैं, बुलाती क्या हैं? वे तो एक ही हैं, अथवा एक साथ ही हैं, पर इसका अभिप्राय है कि जो बाहर और भीतर का दृश्य है, तत्त्व जो है, उस तत्त्व को हम दोनों में देखकर आनंदित होते हैं। मान लीजिए आप अपने को देखना चाहें, आपके पास अपनी छवि होते हुए भी आप अपने पास एक दर्पण रखते हैं। इसका अभिप्राय है कि जीवन में, हमारे पास जैसा सामर्थ्य और क्षमता हो, विचार हो, हमें उसका सदुपयोग करना चाहिए, पर निश्चित रूप से बाहर भी वही और भीतर भी वही। यह अनुभव करते हुए कि –
जित देखो तित श्याम मयी है,
नीर कंज पर यमुना श्यामा,
श्याम घटा गगन पर छई है।
सब मिलाकर देखें, ये जो बाहर-भीतर ”चित्र-दृश्य“ वही है। तत्त्वतः एक होते हुए भी पूर्णरूप में है। इसीलिये उनका ध्यान करने का अर्थ यह हुआ कि हम हर वस्तु को बाहर देखने के अभ्यस्त हैं, हमारे मन में ईश्वर के प्रति भी यह भावना होती है, उनका दर्शन हम बाहर रूप में भी कर सकें, भीतर भी है वही। मीरा का वह प्रसिद्ध पद आपने सुना होगा, किसी ने पूछा भावमयी मीरा, ”तुम अपने प्रियतम को पत्र नहीं लिखती हो ?“ तब उन्होंने कहा –
जाके पिया परदेस बसत हैं, लिखि लिखि भेजत पाती।
मोरे पिया हृदय में बसत हैं रौन करै दिन राती।।
पत्र मैं क्यों लिखूँ ? वे तो प्रत्येक क्षण मेरे पास हैं। दूसरी ओर विनयपत्रिका में गोस्वामी तुलसीदासजी भगवान के नाम पत्र लिखते हैं। अपनी भावना की अभिव्यक्ति करते हैं। नाम जप के प्रति गोस्वामीजी की अटूट आस्था थी। जप का अर्थ यह है कि जो सगुण और निर्गुण दोनों का प्रतिपादक है, दोनों को जोड़ने वाला बीच वाला एक तत्त्व है –
सगुण अगुण बिच नाम सुसाखी।
उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी।।
ऐसा प्रभु का दिव्य नाम और उनके नाम का जप और वह नाम ऐसा है जो ईश्वर सगुण साकार है, और जो हृदय में भी है, उन दोनों का प्रतिपादन करता है। इतना होते हुए भी, गोस्वामीजी निर्गुण की अपेक्षा सगुण को ही महत्त्व देते हैं। उन्होंने गीतावली रामायण में कहा जो तत्त्व है, जो रामनाम हैं, वे हमारे ही राम हैं –
अंतरजामी ते बड़ो बाहरयामी राम।
जो अंतरयामी ईश्वर हैं, उनसे भी अधिक बाहरयामी प्रभु उदार हैं। जब भक्त प्रह्लाद ने पुकारा, तब प्रभु प्रह्लाद के हृदय से भी निकल सकते थे, पर प्रह्लाद के हृदय से नहीं प्रकट होकर जब वे स्तम्भ से नृसिंह रूप में प्रकट होते हैं –
प्रगटे प्रभु पाहन ते न हिये ते।
तो सूत्र यही है कि जिसको अगुण में आस्था थी, उसने सर्वव्यापी ”ब्रह्म“ को देखा; जिसकी सगुण के प्रति आसक्ति है, हृदय में प्रेम है, नाम जप के द्वारा, ध्यान के द्वारा, आप जैसे बालक को लाड़ लड़ाते हैं, झूले पर झूलाते हैं, उस तरह से झुलाने की स्वतंत्रता आपके पास विद्यमान है।
मुझे विश्वास है कि आप लोग ऐसे स्थान में आए हुए हैं, जहाँ पर भगवान के चारों विग्रह – नाम, रूप, लीला और धाम सभी एक साथ सुलभ है। ”अयोध्या“ प्रभु का धाम भी है, यहाँ उनका नाम तो रटा ही जाता है, उनका रूप और लीला भी है। ऐसा परिपूर्ण धाम, चारों विग्रह यहाँ एक ही साथ प्राप्त हैं।
आज के दिन का महत्त्व भी इसीलिये है, और गुरु का उद्देश्य भी यही है कि जो वास्तविक ”सत्य“ है, वह सत्य गुरु शिष्य के हृदय में प्रतिष्ठापित कर देता है। और मुझे विश्वास है कि आप लोगों ने इस यात्रा में इसका सदुपयोग किया होगा। भगवती देवी सरयू में स्नान करके और श्री अवध की जो धूलि है उस धूलि का संस्पर्श करके, प्रभु की कथा सुन करके, मंदिरों में उनके श्री विग्रह का दर्शन करके और इस तरह से प्रभु के जो सभी रूप हैं, उससे धन्यता का बोध किया होगा। यहाँ भगवान राम के गुणों की कथा सुनने में जो आनंद है, इसीलिये गोस्वामी जी कहते हैं –
भरत सत्रुहन दोनउ भाई।
सहित पवन सुत उपवन जाई।।
जाना चहहिं राम गुन गाहा।
कह हनुमान सुमति अवगाहा।।
अयोध्या की दिव्य भूमि में जो आप आए और इस अवसर को पा करके भी आपलोग यदि इसका सदुपयोग न कर पाए, वंचित रह जायँ, तो न तो धाम में आने का लाभ और न समय की सार्थकता, मुझे विश्वास है कि श्री रामभद्र और जगत् जननी श्री किशोरीजी हम लोगों पर निरन्तर रूपतत्व, भावतत्त्व प्रतिष्ठापित करते रहेंगे और आप लोगों पर अपनी कृपा से रस वर्षण करते रहेंगेे।
बोलिए सियावर रामचन्द्र की जय।