काव्याभिनंदन- डॉं. गिरिजा शंकर त्रिवेदी
हे विद्वद्वर, हे नीतिमान् !
हे कालतत्व के विज्ञाता, हे गुणनिधान !
भौतिकता से तापित शापित है वर्तमान
सुख-शांति यज्ञ विध्वंस कर रहे,
दैन्य-दुःख के फिर सुबाहु-मारीच
ताड़का की दरिद्रता से
तन, मन, चेतन सब कुछ हो भयाक्रांत
अपने ही हाथों धधकार्य दावानल से
किस तरह विश्व अनुदित होता जाता अशांत!
आगे दौड़ता लोभ का शूकर वेगवान
पिछड़ता अश्व पुरुषार्थ आज फिर विगतमान
हा हन्त! हन्त राक्षस अनने जा रहा पुनः
कल तक जो धर्मात्मा था वही प्रतापभानु !
फिर काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ईर्ष्या, विरोध के महारथी,
कौरवी चमू योद्धा समूह
अभिमन्यु शौर्य औ स्वाभिमान पर करते हैं
एक जुट प्रहार रच चक्रव्यूह !
तुम दुर्लभ मानव तन में ईश्वर के प्रकाश
तुम पक्षिराज के गहन प्रश्न
तुम कागभुशुण्डि प्रदत्त सहज भास्वर उत्तर
तुम निर्विवाद संवाद सौम्य
साहित्य हृदय दर्शन, लोचन
मानव क्षमता के उद्बोधक
कालुष्य तिमिर अज्ञानलिप्त मन के शोषक
मोहान्ध कर्म के अर्जुन को तुम जगा रहे
चेतना ज्ञान के स्यन्दन का कर संचालन
तुम पांचजन्य के घोष, मधुर वंशी के रव
रघुपति के धनु टंकार, कमल कोमल करतल
तुम कल्प महीरुह पर द्विजकुल के कल कूजन
नाना पुराण निगमागम सम्मत रामचरित गायक
हे शिवनायक नन्दन !
तुम भक्ति शान्ति सीता के सुत ज्यों आंजनेय
तुम पंचतत्व में दीप्त दिव्यता अप्रमेय
तुम शांति शील के साथ शक्ति के संचालक
सात्विकता के वैभव तामस के संहारक !
तुम शास्त्रों के संकेत और सूत्रों के निर्मल भाष्यकार
तुम सरस्वती मन्दिर के अप्रतिहत दीपक ज्योति प्रसार
‘मानस मंथन’, ‘मानस प्रवचन’, ‘मानस दर्पण’, के
साथ-साथ ‘मानस मुक्तावली’, ‘मानस चरितावली’
कृतियों का कर विधान
अन्धता, मूल्यहीनता, अमावस में विद्वन्
तुम तान रहे शारदी ज्योत्सना का वितान !
मानव की अन्तर्हित प्रज्ञा के उन्नायक
दशमुख-दशरथ दोनों पंथों के परिचायक
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की ले कामना अमल
चारों पदार्थ रख रहे मनुजता के करतल
हे निर्विकार, हे अर्चनीय, हे वंदनीय, हे ज्ञान-गगन
स्वीकार करो निष्ठा-अक्षत, श्रद्धा-रोली, शब्द-सुमन
भाव का सुरभिमय अभिनन्दन
युगपद वन्दन !